भोपालसागर

समाज के लिए अभिशाप है बाल विवाह – समृद्धि नेमा

SAGAR/बाल-विवाह बड़ों की रज़ामंदी और संरक्षण में होने वाला ऐसा अपराध है जो समारोहपूर्वक होता है, जिसमें भागीदार होता हैं समाज, माता-पिता, अभिभावक, रिश्तेदार, पड़ौसी, रस्मों को निभाने वाले कर्ता-धर्ता और वे सभी जो खुद ज्ञाता व विद्वान होने का दावा करते हैं। यह ऐसी कुरीति है जो समाज के माथे पर आज भी अभिशाप बनी हुई है।
आखिर बाल-विवाह होते क्यों हैं, इस बात पर भी गौर किया जाना जरूरी है। चूँकि बच्चे शत-प्रतिशत सच्चे होते हैं, उनका मन भोला होता है। नये कपड़े, मिठाई, उपहार, बैण्ड-बाजा का लालच देकर उन्हें विवाह के मण्डप में बैठा दिया जाता है। अनेक ऐसे क्षेत्र या स्थान भी हैं जहाँ परम्परा, रीति-रिवाजों के नाम पर बच्चों को कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता है। फिर क्या, इस प्रक्रिया का सीधा-साधा असर बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। तेजी से बढ़ता लिंगानुपात, बच्चों में कुपोषण, महिलाओं में खून की कमी, मातृ-शिशु मृत्यु दर आदि ऐसे कारण हैं, जिनका सीधा संबंध बाल विवाहों से है। बच्चों को उम्र से पहले ही उन बंधनों और जिम्मेदारियों से लाद दिया जाता है, जिसके लिए वे शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार ही नहीं होते। बाल-विवाह बच्चों को उनके बचपन से भी वंचित कर देता है। समाज ने 18 साल से कम आयु की बालिका की शादी नहीं करने की कानूनी जानकारी तो प्राप्त कर ली, लेकिन उसने यह भी सीख लिया कि होने वाले बाल-विवाह को सरकार की नजर से कैसे छुपाया जाए। ऐसे में अहम जिम्मेदारी उनकी होती है, जिनकी जानकारी में बाल-विवाह होना अथवा उसके होने की संभावना होती है।

इतिहास
वैदिक काल तक विवाह से पूर्व वर व वधु के शारीरिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था। इस काल में विवाह पूर्ण प्रौढ़ावस्था में होता था। स्त्रियों को वैदिक काल तक ही पुरुषों की तरह के सारे अधिकार थे। वैदिक काल के बाद विवाह प्रथा अल्प वय विवाह में बदलती चली गई। स्मृति चन्द्रिका, संस्कार कांड कहता है कि यदि योग्य पति प्राप्त नहीं होता है तो कन्या का विवाह निर्धारित आयु प्राप्त होने से पहले ही अयोग्य वर से कर देना चाहिये। ‘‘प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा’’ नामक पुस्तक में अल्तेकर लिखते हैं कि कन्याओं को हमलावरों से बचाने के लिये भी विवाह एक प्रतिरक्षात्मक उपाय था। वर्ण और जाति के कारण भी बाल-विवाह को प्रोत्साहन मिला। कम उम्र में कन्याओं का विवाह कर लोग उसके भविष्य की चिंता से बचने की कोशिश करते थे।

भुगतते हैं माँ, बच्चे
कम उम्र में शादी होने से न सिर्फ सुरक्षा के अधिकार का उल्लंघन होता है वरन् अच्छे स्वास्थ्य, पोषण व शिक्षा पाने के अधिकार का भी हनन होता है। इसके अलावा बाल-विवाह के कारण बालिकाएँ कम उम्र में असुरक्षित यौन चक्र में सम्मिलित हो जाती हैं। अपरिपक्व शरीर में बालिका द्वारा गर्भ धारण करने से भ्रूण पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाता। गर्भपात, कम वजन के बच्चे का जन्म, बच्चों और माता में कुपोषण, खून की कमी, मातृ मृत्यु, प्रजनन मार्ग संक्रमण/यौन संचरित बीमारियाँ/एचआईवी संक्रमण की संभावना में वृद्धि होना आदि भी बाल-विवाह के दुष्परिणाम हैं। अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि 15 वर्ष की उम्र में माँ बनने से मातृ मृत्यु की संभावना 20 वर्ष की उम्र में माँ बनने से पाँच गुना अधिक होती है।

बाल-विवाह विरोधी कानून
बाल-विवाह को रोकने के लिए वर्ष 1929 में बाल-विवाह अंकुश अधिनियम बनाया गया। इसे शारदा एक्ट भी कहा जाता है। इस एक्ट में कई खामियाँ थीं। इन कमियों को दूर करने के लिये बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम, (पीसीएमए) 2006 को 1 जनवरी 2007 से अधिसूचित किया गया। इसका उद्देश्य बाल-विवाह प्रथा की प्रभावी रोकथाम के लिये  पहले कानून की विफलता को दूर करना व बाल-विवाह की रोकथाम के लिये एक समग्र व्यवस्था विकसित करना है। यह कानून 1 नवम्बर, 2007 से लागू किया गया है।
हालांकि स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय संधियों और राष्ट्रीय कानूनों में इस बात का उल्लेख किया गया है कि बच्चों को सुरक्षा प्रदान करना और उनके बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर भी हस्ताक्षर किये गये हैं, जिसमें उन्हें शोषण से बचाने व उन्हें सम्मानजनक अधिकार दिलाने हेतु प्रावधान है।

हमारी जिम्मेदारी
.   एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में बाल-विवाह की रोकथाम की जिम्मेदारी सभी लोगों की है। हर जिले के कलेक्टर को बाल-विवाह की रोकथाम के लिए जिम्मेदारी दी गई है। प्रशासन स्तर पर इस कोशिश में हर व्यक्ति को मददगार बनना चाहिए। यदि कहीं भी बाल-विवाह होते दिखाई दे तो इसकी जानकारी प्रशासन तक पहुँचाकर बच्चों का भविष्य बर्बाद होने से रोकना हर नागरिक का कर्त्तव्य है।
.   बाल-विवाह रोकने के लिए समुदाय में निचले स्तर पर प्रेरक के रूप में कार्यरत आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम, आशा कार्यकर्ता एवं स्कूल के शिक्षक उपयोगी माध्यम हो सकते हैं।
.   मध्यप्रदेश में पंचायतों के पास अपार शक्तियाँ हैं। एक जागरूक पंचायत अपने गाँव में कोई भी बाल-विवाह नहीं होने देने के लिए ग्राम सभा के माध्यम से प्रस्ताव पारित कर सकती है। गाँव का मुखिया या सरपंच इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
.   मीडिया बाल-विवाह की रोकथाम में कारगर भूमिका निभा सकता है। एक ओर वह लोगों में बाल विवाह के खिलाफ इसके दुष्परिणामों को लेकर संदेश पहुँचा सकता है, वहीं दूसरी ओर लोगों को शिक्षित और जागरूक भी कर सकता है।
.   बालक-बालिका स्वयं भी बाल-विवाह के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकते हैं।

मध्यप्रदेश ने उठाये कड़े कदम
मध्यप्रदेश सरकार हर साल अक्षय तृतीया अथवा आखातीज को बाल विवाह की रोकथाम करती है। बाल विवाह रोकने के लिए बाल विवाह रोकथाम अभियान भी चलाया जाता है। समस्त जिला कलेक्टरों को निर्देश जारी कर कड़े कदम उठाने के निर्देश दिये जाते हैं। उनसे कहा जाता है कि वे अपने जिले में ऐसे प्रयास करें कि किसी भी परिस्थिति में कोई भी बाल विवाह न हो। इसके लिये समाज के ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों/समूहों का सहयोग लें, जो वैवाहिक कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सही उम्र में विवाह का महत्व, कम उम्र में विवाह के दुष्परिणाम आम नागरिकों तक पहुँचाने के लिए बेहतर प्रचार-प्रसार करने और स्थानीय मीडिया का भी सहयोग लेने को कहा जाता है।
बालिकाओं के हित में चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी देते हुए बाल विवाह न करने की समझाइश देने को कहा गया है। कलेक्टरों से कहा जाता है कि वे जिले के किसी भी शासकीय कॉल-सेंटर को बाल विवाह की सूचना देने के लिए स्थायी रूप से अधिकृत करें। कॉल-सेंटर के फोन नम्बर का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाए ताकि कोई भी व्यक्ति संभावित बाल विवाह की सूचना कभी भी उस फोन नम्बर पर दे सके।

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